Wednesday, July 14, 2010

कुछ मेरी कलम से - २

*ज़िया-ए-हुस्न का उनके है किस-किस को पता नहीं
संवर के जब निकलते वो तो चाँद भी निकलता नहीं (The idea of this couplet and the poem itself came on seeing someone on a moonless night :))

जितना भी याद करो न होगी उनकी जुस्तजू कम
कितना भी समझाओ दिल को फिर भी समझता नहीं

होना चाहें खुदा से खफा तो भला कैसे हो हम
देता है जो मागो वो मगर उनको ही बस देता नहीं

नहीं मिलते हैं तो क्या ख्वाब में तो आतें हैं वो
खफा तो बहुत हैं उनसे हम लेकिन *अफसुर्दा नहीं

चहरे तो लाख़ों हैं दुनिया में दिल लगाने को लेकिन
तुझ दुश्मन-ए-जाँ के सिवा हमें कोई मिलता नहीं

*फ़न-ए-शायरी हासिल नहीं फिर क्यों लिखते हो 'मनु'?
दूसरों की शायरी से हमारा दिल अब बहलता नहीं

- मनु चतुर्वेदी

*ज़िया means splendor
*अफसुर्दा means depressed
*फ़न means talent (The concept for the last couplet might be subconsciously inspired by Siyaah's)